शास्त्रोक्त नियम को ही 'व्रत' कहते हैं, वही 'तप' माना गया है । 'दम' (इन्द्रियसंयम) और 'शम' (मनोनिग्रह) विशेष नियम व्रत के ही अङ्ग हैं । व्रत करने वाले पुरुष को शारीरिक संताप सहन करना पड़ता है, इसलिये व्रत को 'तप' नाम दिया गया है । इसी प्रकार व्रत में इन्द्रिय समुदाय का संयम करना…
संस्कार क्यों-
चौरासी लाख योनियों में भटकता हुआ प्राणी भगवत्कृपा से तथा अपने पुण्यपुंजों से मनुष्य योनि प्राप्त करता है। मनुष्य शरीर प्राप्त करने पर उसके द्वारा जीवन पर्यन्त किये गये अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार उसे पुण्य-पाप अर्थात् सुख-दुःख आगे के जन्मों में भोगने पड़ते हैं-'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।' शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार ही…
ज्योतिष में रत्नों की विशेष महिमा है। रत्नों की चमत्कारी शक्ति का सम्बन्ध आकाशीय ग्रहों से है।प्रत्येक ग्रह में प्राकृतिक गुण होते हैं। ग्रह विशेष और रत्नविशेष की प्रकृति में गुणसाम्य है। यथा –
सूर्य - माणिक्य,
चन्द्र - मोती,
मंगल - मूँगा,
बुध - पन्ना,
गुरु - पुखराज,
शुक्र - हीरा,
शनि - नीलम,…
जन्म के साथ ही मानव को स्वरोदय-ज्ञान मिला है। यह विशुद्ध वैज्ञानिक आध्यात्मिक ज्ञान-दर्शन है, प्राण ऊर्जा है, विवेक शक्ति है। स्वर-साधना अनुभव से हमारे ऋषि-मुनियों ने भूत, भविष्य और वर्तमान को जाना है।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में अंक ज्योतिष, स्वप्न ज्योतिष, स्वरोदय- ज्योतिष, शकुन-ज्योतिष, सामुद्रिक हस्तज्योतिष, शरीरसर्वांगलक्षणज्योतिष हैं। इन सब में तत्काल प्रभाव और…
जन्मपत्री पूर्वार्जित कर्मों को जानने का माध्यम है । पूर्वकृत कर्म से मनुष्य को कौन-सी व्याधि होगी? इसका ज्ञान ज्योतिष विद्या से ही प्राप्त होता है । भारतीय संस्कृति के आधार स्तम्भ चार वेदों में ऋग्वेद सबसे प्राचीन है । इसके अन्तर्गत ज्योतिष एवं चिकित्सा विज्ञान का वर्णन है । दोनों एक दूसरे के पूरक…
विभिन्न मन्वन्तरों में धर्म और मर्यादा की रक्षा के लिये तथा अपने सदाचरण से उत्तम शिक्षा प्रदान करने के लिये सात ऋषि उत्पन्न (अवतरित) होते हैं । ये ही सप्तर्षि कहलाते हैं । इन्हीं की तपस्या, शक्ति, ज्ञान और जीवन-दर्शन के प्रभाव से सारा संसार सुख और शान्ति प्राप्त करता है । ये ऋषिगण लोकहितमें…
देवकार्यादपि सदा पितृकार्य विशिष्यते ।
देवताभ्यो हि पूर्वं पितॄणामाप्यायनं वरम् ॥
(हेमाद्रि में वायु तथा ब्रह्मवैवर्त का वचन)
देव कार्य की अपेक्षा पितृकार्य की विशेषता मानी गयी है । अतः देवकार्य से पूर्व पितरों को तृप्त करना चाहिये ।
अपनी उन्नति चाहने वाला श्राद्ध में भक्तिभाव से पितरों को प्रसन्न करता है, उसे पितर भी सन्तुष्ट करते…