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संस्कार क्यों-

चौरासी लाख योनियों में भटकता हुआ प्राणी भगवत्कृपा से तथा अपने पुण्यपुंजों से मनुष्य योनि प्राप्त करता है। मनुष्य शरीर प्राप्त करने पर उसके द्वारा जीवन पर्यन्त किये गये अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार उसे पुण्य-पाप अर्थात् सुख-दुःख आगे के जन्मों में भोगने पड़ते हैं-‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।’ शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार ही विभिन्न योनियों में जन्म होता है केवल मनुष्य योनि ही ऐसी है, जिसमें जीव को अपने विवेक-बुद्धि के अनुसार शुभ-अशुभ कर्म करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है। मनुष्य की नैतिक, मानसिक, आध्यात्मिक उन्नति के लिये, इसके साथ ही बल-वीर्य, प्रज्ञा और दैवीय गुणों के प्रस्फुटन के लिये संस्कारों से व्यक्ति को संस्कारित करने की आवश्यकता है। संस्कार शब्द का अर्थ ही है, दोषों का परिमार्जन करना। जीव के दोषों और कमियों को दूर कर उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थ के योग्य बनाना ही संस्कार करने का उद्देश्य है। संस्कार वे क्रियाएं तथा रीतियाँ हैं, जो योग्यता प्रदान करती हैं। यह योग्यता दो प्रकार की होती है – पापमोचनसे उत्पन्न योग्यता तथा नवीन गुणों से उत्पन्न योग्यता। संस्कारों से नवीन गुणों की प्राप्ति तथा पापों या दोषों का मार्जन होता है।

 गर्भाधानसंस्कार-

गर्भाधान-संस्कार के लिये माता-पिता का सदाचार सम्पन्न होना, ऋतु काल का उपस्थित होना, ऋतु काल में भी निषिद्ध तिथियों, नक्षत्रों पर्वों तथा योगों का परिहार करना, सहवास से पूर्व देवपूजन तथा वैदिक मन्त्रों का पाठ करना , धार्मिक भावों से सम्पन्न सन्तति की कामना करना तथा प्रसन्नचित्त हो केवल सन्तानोत्पत्ति के लिये परस्पर सहवास करन  होता है गर्भाधान-संस्कार का पूर्ण प्रभाव सन्तान के मन, बुद्धि, चित्त तथा हृदय पर  होता है।

  पुंसवनसंस्कार-

गर्भाधान के बाद स्त्री को नियमों का पालन करते हुए बड़ी सावधानी से रहना चाहिये; क्योंकि तीसरे-चौथे मास में गर्भपात की आशंका अधिक रहती है, इसीलिये  विशेष रूप से गर्भरक्षण के लिये पुंसवनसंस्कार का  विधान है।

सीमन्तोन्नयनसंस्कार-

गर्भाधान के अनन्तर स्त्री को नियमों का पालन करते हुए बड़ी सावधानी से रहना चाहिये; क्योंकि  आठवें मास में गर्भपात की आशंका अधिक रहती है, इसीलिये  विशेष रूप से गर्भरक्षण के लिये  सीमन्तोन्नयनसंस्कार का विधान है।

जातकर्मसंस्कार-

जन्म होने के बाद जो सबसे पहले संस्कार होता है, उसी का नाम जातकर्म है। इस संस्कार का प्रधान उद्देश्य है कि गर्भस्थ शिशु, जो माता के रस से अपना पोषण करता है, उस आहार आदि का दोष जो बालक में आ जाता है, वह इस संस्कार के द्वारा दूर हो जाता है गर्भस्थ बालक के नाभि में एक नाल (नली) लगी रहती है, जिसका सम्बन्ध माता के हृदय से होता है, इसी रसवाहिनी नाल से माता के द्वारा ग्रहण किये गये आहार के द्वारा शिशु का गर्भ में पोषण होता है। जन्म के अनन्तर बालक इस नाल के साथ ही बाहर निकलता है, इस जातकर्म-संस्कार में बालक के इसी नाल का छेदन किया जाता है और तब माता से बालक का सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है और बालक को मधु-दूध आदि बाहर का आहार देना प्रारम्भ किया जाता है।

नामकरण-संस्कार-

व्यवहार की सिद्धि, आयु एवं ओज की वृद्धि के लिये नामकरण-संस्कार करना चाहिये ।  आचार्य बृहस्पति बताते हैं कि ‘नाम अखिल व्यवहार एवं मंगलमय कार्यों का हेतु है। नाम से ही मनुष्य कीर्ति प्राप्त करता है, इसी से नामकर्म अत्यन्त प्रशस्त है’

नामाखिलस्य व्यवहारहेतुः शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतुः ।
 नाम्नैव कीर्तिं लभते मनुष्यस्ततः प्रशस्तं खलु नामकर्म ॥

भगवान् तथा सन्तों के नाम की महिमा तो इतनी अधिक है कि नाम लेते ही पुण्य की प्राप्ति हो जाती है। भगवन्नाम की तो महिमा अवर्णनीय है।  नाम की महिमा अधिक है। इसी कारण जातक का नामकरण संस्कार किया जाता है।कुलाचार एवं देशाचार के अनुसार शुभ मुहूर्त में बालक का नामकर संस्कार कर लेना चाहिये।भद्रा, वैधृति, व्यतीपात, ग्रहण, संक्रान्ति, अमावास्या और श्राद्ध के दिन बालक का नामकरण करना निषिद्ध है

निष्क्रमणसंस्कार एवं सूर्यावलोकन-

इस संस्कार में मुख्य रूप से शिशु को सूतिका गृह से बाहर लाकर सूर्य का दर्शन कराया जाता है—

'अथ निष्क्रमणं नाम गृहात्प्रथम निर्गमः' (बृहस्पति) ।
अन्नप्राशनसंस्कार-

 बालक को प्रथम बार सात्त्विक पवित्र मधुरान्न खिलाना (प्राशन कराना) अन्नप्राशन- संस्कार कहलाता है। पारस्करगृह्यसूत्र में बताया गया है कि  जन्म के छठे मास में अन्नप्राशन-संस्कार करना चाहिये- -‘घष्ठे मासेऽन्नप्राशनम् ।’ आयुर्वेद के  ग्रन्थों में भी पहली बार अन्न-सेवन करने का यही समय दिया गया है-‘षण्मासं चैनमन्नं प्राशयेल्लघु हितं च ॥’

चूडाकरणसंस्कार-

‘चूडा क्रियते अस्मिन्’—इस विग्रह के अनुसार चूडाकरण संस्कार का अभिप्राय है, वह संस्कार जिसमें बालक को चूडा अथवा शिखा धारण करायी जाय। इसको मुण्डन-संस्कार भी कहते हैं। इसमें मुख्य कार्य शिशुका केशमुण्डन है। यह संस्कार बल, आयु एवं तेज की वृद्धिके लिये किया जाने वाला संस्कार है। मनुजी ने इस संस्कार के विषय में कहा है कि जन्म से प्रथम या तृतीय वर्ष में बालक का चूडाकर्म करना चाहिये |

चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः ।
प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कर्तव्यं श्रुतिचोदनात् ॥ (मनुस्मृति २ । ३५)
अक्षरारम्भसंस्कार (विद्यारम्भसंस्कार)-

अक्षराम्भसंस्कार क्षर (जीव) का अक्षर (परमात्मा) से सम्बन्ध कराने वाला संस्कार है, इस दृष्टि से इस संस्कार की मानव-जीवन में महती भूमिका है। गीता में स्वयं भगवान् अक्षर की महिमा बताते हुए कहते हैं कि अक्षरों में ‘अ’कार मैं ही हूँ-अक्षराणामकारो ऽस्मि ।इस प्रकार अक्षरारम्भ या विद्यारम्भसंस्कार मानव जीवन के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण संस्कार है |

कर्णवेधसंस्कार-

जिस संस्कार में विशेष विधिपूर्वक बालक एवं बालिका के  कान का छेदन किया जाता है, उसे कर्णवेधसंस्कार कहा गया है। दीर्घायु और श्री की वृद्धि के लिये कर्णवेधसंस्कार की शास्त्रों में विशेष प्रशंसा की गयी है–’कर्णवेधं प्रशंसन्ति पुष्ट्यायुः श्रीविवृद्धये’ (गर्ग)। बालक के जन्म होने के तीसरे अथवा पाँचवें वर्ष में कर्णवेध करने की आज्ञा है। महान् चिकित्सा शास्त्री आचार्य सुश्रुत ने लिखा है कि रक्षा और आभूषण के लिये बालक के दोनों कान छेदे जाते हैं।

'रक्षाभूषणनिमित्तं बालस्य कर्णौ विध्येते। 
पूर्वं दक्षिणं कुमारस्य, वामं कुमार्याः, ततः पिचुवर्ति प्रवेशयेत् ||
उपनयनसंस्कार-

 बालक को विद्याध्ययन के लिये ले जाने को ‘उपनयन’ कहते हैं। बालक के पिता आदि अपने पुत्रादिकों को विद्याध्ययनार्थ आचार्य के पास ले जायँ, यही उपनयन शब्दका अर्थ है। बालक में यह योग्यता आ जाय इसलिये विशेष कर्मद्वारा उसे संस्कृत किया जाता है, उसे संस्कृत करने का संस्कार ही उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार है। इसीका नाम व्रतबन्ध भी है। इस व्रतबन्ध से बालक दीर्घायु, बली और तेजस्वी होता है उपनयन के बिना देवकार्य और पितृकार्य नहीं किये जा सकते और श्रौत-स्मार्त-कर्मों में तथा विवाह, सन्ध्या, तर्पण आदि कर्मों में भी उसका अधिकार नहीं रहता है।

वेदारम्भ-संस्कार-

उपनयन-संस्कार के ही दिन वेदारम्भ-संस्कार कर लेते जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि संस्कार में आचार्य के द्वारा ब्रह्मचारी को अपनी वेद शाखा का ज्ञान और मन्त्रोपदेश कराया जाता है।

उपनीय गुरुः शिष्यं महाव्याहृतिपूर्वकम् ।
 वेदमध्यापयेदेनं शौचाचाराँश्च शिक्षयेत् ॥
समावर्तनसंस्कार-

इस संस्कार में उसकी विद्यासमाप्ति होती है और मन्त्राभिषेकपूर्वक गुरु की आज्ञा से स्नातक होता है। समावर्तन का सामान्य अर्थ है गुरुकुल से शिक्षा ग्रहण कर अपने घर वापस आना। यह शिक्षा प्राप्ति का दीक्षान्त संस्कार है। इस संस्कार में ब्रह्मचर्याश्रम-विद्याध्ययन की पूर्णता होती है और फिर विवाह के अनन्तर गृहस्थाश्रम प्रवेश की अधिकार सिद्धि होती है।

विवाहसंस्कार-

विवाह वर-वधू के मध्य एक पवित्र आध्यात्मिक सम्बन्ध है, जो अग्नि एवं देवताओं के साक्ष्य में सम्पादित होता है। स्थूल दृष्टि से एक  लौकिक उत्सव दिखायी देने वाला यह संस्कार जीवन में सभी प्रकार की मर्यादाओं की स्थापना करने वाला है। सन्तानोत्पत्ति द्वारा पितृ ऋण से मुक्ति दिलाने वाला यह संस्कार संयमित ब्रह्मचर्य, सदाचार, अतिथि सत्कार तथा प्राणिमात्र की सेवा करते हुए स्वयं के उत्थान में सहज साधन के रूप में प्रतिष्ठित है। विवाह का मूल उद्देश्य लौकिक आसक्ति का  तिरोभावकर एक अलौकिक आसक्ति के आनन्द को प्रदान करना है।  पुरुषार्थचतुष्टय की सिद्धि में गार्हस्थ्यधर्म  की विशेष महिमा है। विवाह का प्रयोजन है कि पुरुष एवं स्त्री के अमर्यादित कामोपभोग को नियन्त्रित करना। कितने ही धार्मिक कृत्य बिना पत्नी के नहीं हो सकते। पत्नी पति की अर्धांगिनी है। पति और पत्नी दोनों विवाह के बाद ही पूर्णता को प्राप्त करते हैं। वेदमन्त्रों से विवाह शरीर और मन पर विशिष्ट संस्कार उत्पन्न करता है और दोनों का परस्पर का अनुराग अत्यन्त पवित्र और प्रगाढ़ होता जाता है। भारतीय सनातन संस्कृति में विवाह एक धार्मिक संस्कार है।

विवाहाग्निपरिग्रहसंस्कार-

विवाह संस्कार में लाजाहोम आदि की क्रियाएँ जिस अग्नि में सम्पन्न की जाती हैं, वह अग्नि आवसथ्याग्नि, गृह्याग्नि, स्मार्ताग्नि, वैवाहिकाग्नि तथा औपासनाग्नि नाम से कही जाती है। विवाह के अनन्तर जब वर-वधू अपने घर आने लगते हैं, तब उस स्थापित अग्नि को घर लाकर यथाविधि स्थापित करके उसमें प्रतिदिन अपनी कुल परम्परानुसार सायं-प्रातः हवन करने का विधान है।

वैवाहिकेऽग्नौ कुर्वीत गृह्यं कर्म यथाविधि ।
 पञ्चयज्ञविधानं च पक्तिं चान्वाहिकीं गृही ॥ वैश्वदेवस्य 
सिद्धस्य गृह्येऽग्नौ विधिपूर्वकम् ।
 आभ्यः कुर्याद् देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम् ॥(मनुस्मृति ३।६७, ८४)
अन्त्येष्टिसंस्कार-

जीव की सद्गति के उद्देश्य से मरणासन्न अवस्था में किया जाने वाला दानादि कृत्य तथा मृत्यु के तत्काल बाद का दाहादि कर्म और षटपिण्डदान – अन्त्येष्टि संस्कार  कहलाता है।सामान्य रूप से मृत्यु के अनन्तर किया जाने वाला संस्कार अन्त्येष्टिसंस्कार कहलाता है। पहला संस्कार है- गर्भाधान और अन्तिम संस्कार है-अन्त्येष्टि इसी को अन्त्यकर्म, और्ध्वदैहिक संस्कार, पितृमेध तथा पिण्डपितृयज्ञ भी कहा गया है। संस्कृत अग्नि से शरीर के दाह से उसके आत्मा की परलोक में सद्गति होती है।अन्त्येष्टि संस्कार मुख्यतः दो रूपों में सम्पन्न होता है। पहला पक्ष मरणासन्न अवस्था का है और दूसरा पक्ष मृत्यु के अनन्तर अस्थि संचयन तक किया जाने वाला कर्म है। जन्म की समाप्ति मरण से होती है, इसीलिये मृतक का संस्कार यथाविधि अवश्यकरणीय है।

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