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भद्रा भगवान् सूर्य की पुत्री हैं । ये सूर्य पत्नी छाया से उत्पन्न हैं और शनैश्चर की बहन हैं । भद्रा का वर्ण काला, रूप भयंकर, केश लम्बे और दाँत बड़े विकराल हैं । जन्म होते ही वह संसार का ग्रास करने के लिये दौड़ी, यज्ञों में विघ्न-बाधा पहुँचाने लगी, उत्सवों तथा मंगल-यात्रा आदि में उपद्रव करने लगी और पूरे जगत को पीड़ा पहुँचाने लगी । भद्रा के भयंकर रूप, उपद्रवी तथा उच्छृंखल स्वभाव के कारण उससे कोई भी विवाह करने को तैयार नहीं हुआ । सूर्यनारायण ने अपनी पुत्री के लिये स्वयंवर का आयोजन किया तो भद्रा ने तोरण, मण्डप, आसन आदि सभी उखाड़ फेंका । आयोजन का विध्वंस हो गया । सूर्यनारायण ने भद्रा को समझाने के लिये ब्रह्माजी से प्रार्थना की । ब्रह्माजी ने आकर भद्रा को समझाया और कहा कि भद्रे! तुम बव, बालव, कौलव, तैतिल आदि चर करणों के अन्त में सातवें करण के रूप में स्थित रहो । जो व्यक्ति तुम्हारे समय में यात्रा, गृहप्रवेश, खेती, व्यापार, उद्योग और अन्य मंगल कार्य करे तो तुम उस कार्य में विघ्न डालो । भगवान् सूर्यनारायण की पुत्री होने तथा ब्रह्माजी द्वारा उपदेशित होने के कारण आदरणीय पूज्य भद्रा की उपेक्षा विपरीत परिणाम देती है । करण पंचांग का पाँचवाँ अंग है । प्रत्येक तिथि में दो करण तथा एक चान्द्रमास में साठ करण की परिकल्पना की गयी है । शुक्ल प्रतिपदा के उत्तरार्ध से कृष्ण चतुर्दशी के पूर्वार्धतक २८ तिथियों में आठ आवृत्तिकर क्रमश: बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर (गज), वणिज तथा विष्टि नामक सात चर करण माने गये हैं । कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के उत्तरार्ध से शुक्ल प्रतिपदा के पूर्वार्धतक क्रमशः शकुनि, नन्दि चतुष्पद, नाग एवं किंस्तुघ्न नामक चार स्थिर करण माने तथा गये हैं ।

चर करण में सातवें करण विष्टि का ही नाम भद्रा है । इसके स्वामी यम हैं, जो भरणी नक्षत्र, विष्कुम्भक योग तथा दक्षिण दिशा के स्वामी हैं । यम अनिष्टकारी तथा भयावह हैं । ये जिस नक्षत्र, दिशा, योग आदि के स्वामी हैं, मनुष्य उनसे स्वाभाविक रूपसे भयाक्रान्त रहता है ।

भद्रावास

भद्रा का वास स्वर्गलोक, पाताललोक और पृथ्वी लोक में माना जाता है । जब भद्रा का वास  स्वर्गलोक और पाताललोक में होता है, तब वहाँ के  वासियों को सुख-दुःख का अनुभव होता है । जब भद्रा का वास पृथ्वीलोक में होता है, तब  मनुष्यों को सुख-दुःखका आभास होता है ।

भद्रा का वास किसी भी मुहूर्त काल में पाँच घटी ( 2 घंटे ) मुखमें, दो घटी ( 48 मिनट ) कण्ठ में, ग्यारह घटी ( 4 घंटे 24 मिनट ) हृदय में, चार घटी ( 1 घंटे 34 मिनट ) नाभि में, पाँच घटी ( 2 घंटे ) कमर में और तीन घटी ( 1 घंटे 12 मिनट ) पुच्छ में  रहता है ।

मुख में भद्रा कार्य का नाश करती है । कण्ठ में धन का नाश करती है । हृदय में प्राण का नाश करती है । नाभि में कलह कराती है । कमर में धन संपत्ति का विनाश करती है । किंतु पुच्छ में भद्रा अवश्य ही विजय और कार्यसिद्धि कराती है । इस प्रकार भद्रा का लगभग १२ घण्टे में से मात्र १ घण्टा १२ मिनट का अन्तिम समय शुभकारी होता है ।

महर्षि भृगु के अनुसार सोमवार तथा शुक्रवार की भद्रा कल्याण कारी, शनिवार की वृश्चिकी, गुरुवार की पुण्यवती तथा शेष वारों की भद्रिका होती है । अतः सोमवार, गुरुवार तथा शुक्रवार की भद्रा का दोष नहीं होता हैं ।

शनि की साढ़ेसाती

एक राशि पर शनि ढाई वर्ष रहता है । जब शनि जन्मराशि से 12,1,2 स्थानों में हो तो साढ़ेसाती होती है । यह साढ़े सात वर्ष तक चलती है, अत एव इसे शनि की साढ़ेसाती कहते हैं । यह समय प्रायः कष्टदायक होता है ।

द्वादशे जन्मगे राशौ द्वितीये च शनैश्चरः ।
सार्द्धानि सप्तवर्षाणि तदा दुःखैर्युतो भवेत् ॥ 

शनि गोच रसे बारहवें स्थान पर हो तो सिर पर, जन्मराशि में हो तो हृदय पर, द्वितीय में हो तो पैरपर उतरता हुआ अपना प्रभाव डालता है । जन्म राशि से शनि चतुर्थ, अष्टम हो तो ढैया होती है, जो ढाई वर्ष चलती है । यह भी जातक के लिये कष्टकारी होती है ।

राहु-केतु

जिस मार्ग पर पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है । वह क्रान्तिवृत्त एवं चन्द्रमा का पृथ्वी के चारों ओर का मार्ग-वृत्त (अक्ष) ये दोनों जिन बिन्दुओं पर एक-दूसरे को काटते हैं, उनमें से एक का नाम ‘राहु’ और दूसरे का ‘केतु’ है,  आकाश में उत्तर की ओर बढ़ते हुए चन्द्रमा की कक्षा जब सूर्य को काटती है, तब उस सम्पात-बिन्दु को राहु और दक्षिण की ओर नीचे उतरते हुए चन्द्रमा को कक्षा जब सूर्य की कक्षा को पार करती है, तब उस सम्पात-बिन्दुको केतु कहते हैं ।

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