देवकार्यादपि सदा पितृकार्य विशिष्यते । देवताभ्यो हि पूर्वं पितॄणामाप्यायनं वरम् ॥ (हेमाद्रि में वायु तथा ब्रह्मवैवर्त का वचन)
देव कार्य की अपेक्षा पितृकार्य की विशेषता मानी गयी है । अतः देवकार्य से पूर्व पितरों को तृप्त करना चाहिये ।
अपनी उन्नति चाहने वाला श्राद्ध में भक्तिभाव से पितरों को प्रसन्न करता है, उसे पितर भी सन्तुष्ट करते हैं । वे पुष्टि, आरोग्य, सन्तान एवं स्वर्ग प्रदान करते हैं । पितृकार्य देवकार्य से भी बढ़कर है; अतः देवताओं को तृप्त करने से पहले पितरों को ही सन्तुष्ट करना श्रेष्ठ माना गया है । कारण, पितृगण शीघ्र ही प्रसन्न हो जातें हैं, सदा प्रिय वचन बोलते हैं, भक्तों पर प्रेम रखते हैं और उन्हें सुख देते हैं । पितर पर्वों के देवता हैं अर्थात् प्रत्येक पर्व पर पितरों का पूजन करना उचित है । हविष्मान्संज्ञक पितरों के अधिपति सूर्यदेव ही श्राद्ध के देवता माने गये हैं ।
पितरों के नाम और गोत्र ही उनके पास हव्य और कव्य पहुँचाने वाले हैं । मन्त्र की शक्ति तथा हृदय की भक्ति से श्राद्ध का सार-भाग पितरों को हीं प्राप्त होता है । अग्निवात्त आदि दिव्य पितर पिता-पितामह का आदि के अधिपति हैं, वे ही उनके पास श्राद्ध अन्न को पहुँचाने की व्यवस्था करते हैं । पितरों में से जो लोग कहीं जन्म ग्रहण कर लेते हैं, उनके भी कुछ-न-कुछ नाम, गोत्र तथा देश आदि तो होते ही हैं; दिव्य पितरों को उनका ज्ञान होता है और वे उसी पते पर सभी वस्तुएँ पहुँचा देते हैं । अतः यह भेंट-पूजा आदि के रूप में दिया हुआ सब सामान प्राणियों के पास पहुँचकर उन्हें तृप्त करता है । यदि शुभ कर्मो के योग से पिता और माता दिव्य योनि को प्राप्त हुए हों तो श्राद्ध में दिया हुआ अन्न अमृत होकर उस अवस्था में भी उन्हें प्राप्त होता है ।
वही दैत्ययोनि में भोग रूप से, पशु योनि में तृण रूप से, सर्प योनि में वायु रूप से तथा यक्ष योनि में पान रूप से उपस्थित होता है । इसी प्रकार यदि माता-पिता मनुष्य-योनि में हों तो उन्हें अन्न-पान आदि अनेक रूपों में श्राद्धान्न की प्राप्ति होती है । यह श्राद्ध कर्म पुष्प कहा गया है, इसका फल है ब्रह्म की प्राप्ति । श्राद्ध से प्रसन्न हुए पितर आयु, पुत्र, धन, विद्या, राज्य, लौकिक सुख, स्वर्ग तथा मोक्ष भी प्रदान करते हैं ।
श्राद्ध का समय (कुतप काल)
मध्याह्नः खड्गपात्रे च तथा नेपालकम्बलः। रूप्यं दर्भास्तिला गावो दौहित्रश्चाष्टमः स्मृतः ॥
पापं कुत्सितमित्याहुस्तस्य संतापकारिणः । अष्टावेते यतस्तस्मात् कुतपा इति विश्रुताः ॥ (मत्स्यपुराण)
सबेरे तीन मुहूर्त (छः घड़ी / 2 घंटे 24 मिनट) तक प्रातःकाल रहता है । उसके बाद तीन मुहूर्त तक का समय सङ्गव कहलाता है । तत्पश्चात् तीन मुहूर्त तक मध्याह्न होता है । मध्याह्न श्राद्ध के लिये उत्तम काल है । दिन के पंद्रह मुहूर्त , बतलाये गये हैं । उनमें आठवाँ मुहूर्त ‘कुतप’ कहलाता है । उस समय से धीरे-धीरे सूर्य का ताप मन्द पड़ता जाता है । वह अनन्त फल देने वाला काल है । उसी में श्राद्ध का आरम्भ उत्तम माना जाता है । खड्गपात्र, कुतप, कम्बल, सुवर्ण, कुश, तिल तथा आठवाँ दौहित्र (पुत्री का पुत्र) ये कुत्सित अर्थात् पाप को सन्ताप देने वाले हैं इसलिये इन आठों को ‘कुतप’ कहते हैं।
विष्णोदेंहसमुद्भूताः कुशाः कृष्णास्तिलास्तथा । श्राद्धस्य रक्षणायालमेतत् प्राहुर्दिवौकसः ॥ (मत्स्यपुराण)
कुश और काले तिल भगवान् श्रीविष्णु के शरीर से उत्पन्न हुए हैं ।
श्राद्ध में ब्राह्मण-भोजन –
सामान्यतः श्राद्ध की दो प्रक्रिया है-१-पिण्डदान और २-ब्राह्मण-भोजन। मृत्यु के बाद जो लोग देवलोक या पितृलोक में पहुँचते हैं वे मन्त्रों के द्वारा बुलाये जाने पर उन-उन लोकों से तत्क्षण श्राद्ध देश में आ जाते हैं और निमन्त्रित ब्राह्मणों के माध्यम से भोजन कर लेते हैं । सूक्ष्मग्राही होने से भोजन के सूक्ष्म कण के आघ्राण से उनका भोजन हो जाता है, वे तृप्त हो जाते हैं । वेदने बताया है कि ब्राह्मणों को भोजन कराने से वह पितरों को प्राप्त हो जाता हैं ।
इममोदनं नि दधे ब्राह्मणेषु विष्टारिणं लोकजित स्वर्गम् । (अथर्ववेद)
(इमम् ओदनम्) इस ओदनो पलक्षित भोजन को (ब्राह्मणेषु नि दमे) ब्राह्मणों में स्थापित कर रहा हूँ । यह भोजन विस्तार से युक्त है और स्वर्गलोक को जीतने वाला है । इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए मनु जी ने लिखा हैं ।
यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकसः कव्यानि चैव पितरः किं भूतमधिकं ततः ॥ (मनुस्मृति)
अर्थात् ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य को और पितर कव्य को खाते हैं ।
पितरों के लिये लिखा है कि वे अपने कर्म वश अन्तरिक्ष में वायवीय शरीर धारण कर रहते हैं । अन्तरिक्ष में रहने वाले इन पितरों को ‘श्राद्धकाल आ गया है’- यह सुनकर ही तृप्ति हो जाती है । ये ‘मनोजव’ होते है अर्थात इन पितरों की गति मन की गति की तरह होती है । ये स्मरण से ही श्राद्ध देश में आ जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ भोजन कर तृप्त हो जाते हैं । इनको सब लोग इसलिये नहीं देख पाते हैं कि इनका शरीर वायवीय होता है । इस विषय में मनुस्मृतिमें भी कहा गया है- श्राद्ध के निमन्त्रित ब्राह्मणों में पितर गुप्त रूप से निवास करते है । प्राण वायु की भाँति उनके चलते समय चलते हैं और बैठते सश्राद्ध काल में निमन्त्रित ब्राह्मणों के साथ ही प्राण रूप में या वायु रूप में पितर आते हैं और उन ब्राह्मणों के साथ ही बैठकर भोजन करते हैं । मृत्यु के पश्चात् पितर सूक्ष्म शरीर धारी होते हैं, इसलिये उनको कोई देख नहीं पाता । शतपथ ब्राह्मण में भी कहा गया है कि ‘तिर इव वै ‘पितरो मनुष्येभ्यः’ अर्थात् सूक्ष्म शरीर भारी होने के कारण पितर मनुष्यों से छिपे हुए से होते हैं । अतएव सूक्ष्म शरीर धारी होने के कारण ये जल, अग्नि तथा वायुप्रधान होते हैं, इसीलिये लोक लोकान्तरों में आने-जाने में उन्हें कोई रुकावट नहीं होती ।
श्राद्ध के अधिकारी
पिताका श्राद्ध करने का अधिकार मुख्यरूपसे पुत्र को ही है । कई पुत्र होने पर अन्त्येष्टि से लेकर एकादशाह विश्वेदेव नहीं तथा द्वादशाह तक की सभी क्रियाएँ ज्येष्ठ पुत्र को करनी चाहिये । विशेष परिस्थिति में बड़े भाई की आज्ञा से छोटा भाई भी कर सकता है । यदि सभी भाइयों का संयुक्त परिवार हो तो वार्षिक श्राद्ध भी ज्येष्ठ पुत्र के द्वारा एक ही जगह सम्पन्न हो सकता है । यदि पुत्र अलग-अलग हों तो उन्हें वार्षिक आदि श्राद्ध अलग-अलग करना चाहिये यदि पुत्र न हो तो शास्त्रों में श्राद्धाधिकारी के लिये विभिन्न व्यवस्थाएँ प्राप्त हैं । स्मृति संग्रह तथा श्राद्धकल्पलता के अनुसार श्राद्ध के अधिकारी पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, दौहित्र (पुत्री का पुत्र), पत्नी, भाई, भतीजा, पिता, माता, पुत्रवधू, बहन, भानजा, सपिण्ड तथा सोदक कहे गये हैं ।
पुत्र: पौत्रश्च तत्पुत्रः पुत्रिकापुत्र एव च । पत्नी भ्राता च तज्जश्च पिता माता स्नुषा तथा ॥ भगिनी भागिनेयश्च सपिण्डः सोदकस्तथा । असन्निधाने पूर्वेषामुत्तरे पिण्डदाः स्मृताः ॥ (स्मृतिसंग्रह, श्राद्ध०कल्प०)
पंचबलिविधि
पाँच पत्तों पर अलग-अलग भोजन-सामग्री रखकर पंचबलि करनी चाहिये ।
- गोबलि – मण्डल के बाहर पश्चिम की ओर मन्त्र पढ़ते हुए सव्य होकर गोबलि दे ।
सौरभेय्यः सर्वहिताः पवित्राः पुण्यराशयः । प्रतिगृह्णन्तु मे ग्रासं गावस्त्रैलोक्यमातरः ॥ इदं गोभ्यो न मम ।
- श्वानबलि – जनेऊ को कण्ठी कर मन्त्र से कुत्तों को बलि दे ।
द्वौ श्वानौ श्यामशबलौ वैवस्वतकुलोद्भवौ । ताभ्यामन्नं प्रयच्छामि स्यातामेतावहिंसकौ । इदं श्वभ्यां न मम ।
- काकबलि – अपसव्य होकर मन्त्र पढ़कर कौओंको भूमि पर अन्न दे
ऐन्द्रवारुणवायव्या याम्या वै नैरृतास्तथा । वायसाः प्रतिगृह्णन्तु भूमौ पिण्डं मयोज्झितम् ॥ इदमन्नं वायसेभ्यो न मम ।
- देवादिबलि – सव्य होकर मन्त्र पढ़कर देवता के लिये अन्न दे
देवा मनुष्याः पशवो वयांसि सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसङ्घाः। प्रेताः पिशाचास्तरवः समस्ता ये चान्नमिच्छन्ति मया प्रदत्तम् ॥ इदमन्नं देवादिभ्यो न मम ।
- पिपीलिकादिबलि – इसी प्रकार मन्त्रसे चींटी को बलि दे ।
पिपीलिकाः कीटपतङ्गकाद्या बुभुक्षिताः कर्मनिबन्धबद्धाः । तेषां हि तृप्त्यर्थमिदं मयान्नं तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु ॥ इदमन्नं पिपीलिकादिभ्यो न मम ।