महर्षि पाणिनि ने ज्योतिष को वेदपुरुष का नेत्र कहा है – ‘ज्योतिषामयनं चक्षुः’। जैसे मनुष्य बिना नेत्र के किसी भी वस्तु का दर्शन करने में असमर्थ होता है, ठीक वैसे ही वेदशास्त्र को जानने के लिये ज्योतिष का महत्त्व सिद्ध है । भूतल, अन्तरिक्ष एवं भूगर्भ के प्रत्येक पदार्थ का त्रैकालिक यथार्थ ज्ञान जिस शास्त्र से हो, वह ज्योतिषशास्त्र है । अतः ज्योतिष ज्योति का शास्त्र है । ज्योतिष शास्त्र से त्रैकालिक प्रभाव को जाना जा सकता है । वेद के अन्य अंगों की अपेक्षा अपनी विशेष योग्यता के कारण ही ज्योतिष शास्त्र वेदभगवान् का प्रधान अंग-निर्मल चक्षु माना गया है और इसका अन्य कारण यह भी है कि भविष्य जानने की इच्छा सभी युगों में मनुष्यों के मन में सर्वदा प्रबल रहती है, जिसकी परिणति यह ज्योतिषशास्त्र है ।
प्रातः- उत्थान से लेकर स्वप्न पर्यन्त की नित्यचर्या, सम्पूर्ण जीवनचर्या, गर्भ से लेकर मृत्यु तक और उसके बाद भविष्य की बातों, परलोक-पुनर्जन्म की बातों तथा भूतकाल की स्थिति को ज्योतिष अभिव्यक्त करता है । ज्योतिष भास्कर भास्कराचार्य बताते हैं कि अन्य जन्मों में जो भी शुभाशुभ कर्म किया गया हो, उसके फल तथा फलप्राप्ति के समय को यह शास्त्र वैसे ही व्यक्त करता है, जैसे अन्धकार में स्थित पदार्थों को दीपक व्यक्त कर देता है –
यदुपचितमन्यजन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मणः पक्तिम् । व्यञ्जयति शास्त्रमेतत् तमसि द्रव्याणि दीप इव॥