शनि देव की साढ़ेसाती का विचार चन्द्र कुंडली से किया जाता है। चन्द्र कुंडली के अनुसार जब शनि देव द्वादश भाव में प्रवेश करते है तो साढेसाती प्रारम्भ होती है और जब चन्द्र कुण्डली से तृतीय भाव में प्रवेश करते हैं तो साढ़ेसाती समाप्त होती है। चन्द्र कुण्डली से जब शनि देव द्वादश भाव, प्रथम भाव और द्वितीय भाव इन तीन भाव में 2½(ढाईवर्ष)+2½ +2½ = 7½ वर्ष गोचर करते हैं तो इसे साढ़ेसाती कहते है
शनि देव का चन्द्र कुण्डली से गोचर द्वादश भाव, प्रथम भाव, द्वितीय भाव में गोचर फलादेश –
द्वादश भाव प्रथम ढैय्या
सभी प्रकार की हानी, नेत्रविकार, धन-हानि, यात्रा, कर्ज, पाप कर्मों का भोग, लोगो का विरोध, दुर्घटना, नौकरी छूटना किसी भी प्रकार का बन्धन, विदेश यात्रा या घर से दूर जाकर रहना, श्य्या सुख में कमी, पत्ति के साथ मतभेद, पारिवारिक कलह इस प्रकार का फल शनि देव की साढ़ेसाती में प्रथम ढाई वर्ष में प्राप्त होना चाहिए
प्रथम भाव दूसरा ढैय्या
शारीरीक कष्ट, मानसिक पीडा, रिस्तों से दुःख, शारीरीक शक्ति कमजोर, वृद्धावस्था का प्रभाव, नकारात्मक सपने, अशान्ति, नम्रता की कमी, अहंकार बढ़ना, कार्य में देरी, अपमान, अंग में चोट लगना, सुख सुविधा में कमी, रोगों का प्रभाव
द्वितीय भाव तृतीय ढैय्या
धन लाभ, कुटुम्ब – परिवार से वैराग्य, वाणी में कठोरता, नई जिम्मेदारी मिलना, विद्या प्राप्ति, धार्मीक यात्राए
संक्षिप्त में यह कह सकते है की शनि देव की साढ़ेसाती के प्रथम पाँच वर्ष, शारीरीक, मानसिक, आर्थीक रूप से हानि देते है और अन्त के 2½ वर्ष उसमे सुधार की प्रक्रिया होती है