क्यों-
गरुड पुराण के अनुसार स्थूल शरीर के नष्ट हो जाने पर यममार्ग में यात्रा के लिये आति वाहिक शरीर की प्राप्ति होती है । इस आतिवाहिक शरीर के दस अंगों का निर्माण दशगात्र के दस पिण्डों से होता है । जब तक दशगात्र के दस पिण्ड-दान नहीं होते, तब तक बिना शरीर प्राप्त किये वह जीव वायु रूप में ही स्थित रहता है ।
क्या –
शिरस्त्वाद्येन पिण्डेन प्रेतस्य क्रियते सदा । द्वितीयेन तु कर्णाक्षिनासिकाश्व समासतः ॥ गलांसभुजवक्षांसि तृतीयेन यथाक्रमात् । चतुर्थेन तु पिण्डेन नाभिलिङ्गगुदानि च ॥
जानुज तथा पादौ पञ्चमेन तु सर्वदा सर्वमर्माणि षष्ठेन सप्तमेन तु नाडयः ॥ दन्तलोमाद्यष्टमेन वीर्य तु नवमेन च। दशमेन तु पूर्णत्वं तृप्तता बुद्धिपर्ययः ॥
दशगात्र के प्रथम पिण्ड से सिर, द्वितीय पिण्ड से कर्ण, नेत्र और नासिका, तृतीय पिण्ड से गला, स्कन्ध, भुजा तथा वक्षःस्थल, चतुर्थ पिण्ड से नाभि, लिंग अथवा योनि तथा गुदा, पंचम पिण्ड से जंघा पैर, षष्ठ पिण्ड से सभी मर्मस्थान, सप्तम पिण्ड से सभी नाड़ियाँ, अष्टम पिण्ड से दन्त, लोम आदि, नवम पिण्ड से वीर्य अथवा रज और दशम पिण्ड से शरीर की पूर्णता तथा तृप्तता होता है ।
कैसे –
पिण्डदान की विधि – दक्षिणाभिमुख तेल का दीपक रखे । निम्न मन्त्र पढ़कर उसे प्रजवलित करे ।
भो दीप ब्रह्मरूपस्त्वं कर्मसाक्षी ह्यविघ्नकृत् । यावत् कर्मसमाप्तिः स्यात् तावत् त्वं सुस्थिरो भव ॥
कुशों की पवित्री हाथ की अनामिका में धारण करे ।
आचमन करे –
केशवाय नमः, नारायणाय नमः, माधवाय नमः, हृषीकेशाय नमः । अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥
बायें हाथ में पीली सरसों लेकर दाहिने हाथ से ढककर निम्न मन्त्र बोले –
नमो नमस्ते गोविन्द पुराणपुरुषोत्तम । इदं श्राद्धं हृषीकेश रक्ष त्वं सर्वतो दिशः ॥
तदनन्तर दाहिने हाथ से सरसों को निम्न मन्त्रों से दिशाओं में छिड़क दे –
पूर्व में प्राच्यै नमः, दक्षिण में-अवाच्यै नमः, पश्चिम में-प्रतीच्यै नमः, उत्तर में- उदीच्यै नमः,आकाश में अन्तरिक्षाय नमः, भूमिपर- भूम्यै नमः तदनन्तर तिल तथा पुष्प लेकर ‘श्राद्धभूम्यै नमः’ कहकर भूमिपर छोड़ दे ।
दायें हाथ में त्रिकुश, तिल तथा जल लेकर अपसव्य दक्षिणाभिमुख होकर शिरः पूरक प्रथम पिण्ड दान का प्रतिज्ञा संकल्प करे ।
प्रतिज्ञा-संकल्प- अद्य गोत्रः शर्मा / वर्मा/गुप्तोऽहम् गोत्रस्य (गोत्रायाः) प्रेतस्य(प्रेतायाः) प्रेतत्वनिवृत्त्यर्थं शिरःपूरकप्रथम पिण्ड दानं करिष्ये ।
पुनः बायें हाथ से इसमें त्रिकुश, तिल, जल लेकर अवनेजन का संकल्प करे । पिण्ड रखने के लिये
अवनेजन का संकल्प – अद्य गोत्र (गोत्रे) प्रेत – (प्रेते) शिरःपूरकप्रथमपिण्डस्थाने अत्रावनेनिव ते मया दीयते, तवोपतिष्ठताम् ।
ऐसा बोलकर वेदी पर आधा तिल-जल आदि गिरा दे और आधा जल प्रत्यवनेजन के लिये बचाकर अवनेजन पात्र को पास में रख दे । वेदी पर तीन कुशों को दक्षिणाग्र बिछा दे । तिल, घी, मधु तथा गोदुग्ध से सिक्त पिण्ड को और त्रिकुश, तिल, जल हाथ में लेकर पिण्डदान के लिये संकल्प करे ।
पिण्डदान का संकल्प – अद्य गोत्र (गोत्रे) प्रेत (प्रेते) शिरः पूरकप्रथमपिण्डस्ते मया दीयते, तवोपतिष्ठताम् । [शिरःपूरकप्रथमपिण्डस्ते – ऐसा बोलकर बायें हाथ की सहायता से दाहिने हाथ के पितृतीर्थ (अँगूठे और तर्जनी के मध्यभाग) – से वेदी के मध्य कुशों पर पिण्ड को स्थापित करे ।
प्रत्यवनेजन – इसके बाद अवनेजन से बचे हुए जल को पिण्ड के ऊपर निम्न संकल्प बोलकर चढ़ा दे और दोनिया हटा दे अद्य गोत्र (गोत्रे) प्रेत (प्रेते ) शिरःपूरकप्रथम पिण्डे अत्र प्रत्यवनेनिश्व ते मया दीयते, तवोपतिष्ठताम् । पिण्डपूजन – इसके बाद प्रेत को उद्देश्यकर मौन होकर पितृतीर्थ से पिण्ड पर उनका धागा, सफेद चन्दन (तर्जनी से), तिल, सफेद फूल चढ़ाये, धूप और दीपक दिखाकर नैवेद्य चढ़ा दे ।
अर्चनदान का संकल्प ( हाथ में कुश, जल, तिल)
अद्य गोत्र (गोत्रे) प्रेत ( प्रेते) शिरःपूरकप्रथमपिण्डोपरि एतानि ऊर्णासूत्र गन्धाक्षत पुष्प धूप दीप नैवेद्योशीरभृङ्गराजपत्राणि ते मया दीयन्ते, तवोपतिष्ठन्ताम् । पिण्डपर छोड़ दे ।
तिलतोयांजलिदान — दोनों हाथों (अंजलि) में त्रिकुश, तिल, जल लेकर संकल्प करे – अद्य गोत्र (गोत्रे) प्रेत ( प्रेते) शिरःपूरकप्रथमपिण्डोपरि एष तिलतोयाञ्जलिस्ते मया दीयते, तवोपतिष्ठताम् ।
ऐसा बोलकर एक तिलतोयांजलि’ पितृतीर्थ से पिण्ड पर गिरा दे ।
तिलतोय पूर्ण पात्र दान – तिल और जल से भरे पात्र को पिण्ड के समीप रखकर हाथ में त्रिकुश, तिल तथा जल लेकर संकल्प करे ।
अद्य गोत्र (गोत्रे) प्रेत (प्रेते) शिरःपूरकप्रथमपिण्डसमीपे एतत् तिलतोयपूर्णपात्रं ते मया दीयते, तवोपतिष्ठताम् ।
दक्षिणा संकल्प अद्य गोत्र (गोत्रे) प्रेत (प्रेते) कृतैतच्छ्राद्धकर्मणः प्रतिष्ठार्थमिदं द्रव्यं ते मया दीयते, तवोपतिष्ठताम् ।
ऐसा कहकर सव्य होकर ब्राह्मण को दक्षिणा दे ।
प्रार्थना- कर्म की सम्पूर्णता के लिये भगवान् से प्रार्थना करे ।
अनादिनिधनो देवः शङ्खचक्रगदाधरः ।
अक्षय्यः पुण्डरीकाक्ष प्रेतमोक्षप्रदो भव ॥
नारायण सुरश्रेष्ठ लक्ष्मीकान्त वरप्रद । अनेन तर्पणेनाथ प्रेतमोक्षप्रदो भव ॥
हिरण्यगर्भ पुरुष व्यक्ताव्यक्तस्वरूपधृत् । अस्य प्रेतस्य मोक्षार्थं सुप्रीतो भव सर्वदा ॥
पिण्ड प्रक्षेप – श्राद्ध के बाद दीपक बुझा दे । पिण्ड तथा श्राद्ध में प्रयुक्त सामग्री (कुशा को छोड़कर नदी अथवा जलाशय में डाल दे या पिण्ड गाय को खिला दे । वेदी को बिगाड़ देना चाहिये ।(इस विधि से शेष पिण्डदान करे ।