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विभिन्न मन्वन्तरों में धर्म और मर्यादा की रक्षा के  लिये तथा अपने सदाचरण से  उत्तम शिक्षा प्रदान करने के लिये सात ऋषि उत्पन्न (अवतरित) होते हैं । ये ही सप्तर्षि कहलाते हैं । इन्हीं की तपस्या, शक्ति, ज्ञान और जीवन-दर्शन के प्रभाव से सारा संसार सुख और शान्ति प्राप्त करता है । ये ऋषिगण लोकहितमें संलग्न रहते हैं और दूसरे रूप में नक्षत्र मण्डल में सप्तर्षि-मण्डल के रूप में ध्रुव की परिक्रमा करते हुए विचरण करते रहते हैं । प्रलय में भी ये बने रहते हैं और जीवों के कर्मों के साक्षी तथा द्रष्टा बनते हैं । पुराणों में इनके चरित्र का विस्तार से वर्णन किया गया है ।

कृतादिषु युगाख्येषु सर्वेष्वेव पुनः पुनः । वर्णाश्रमव्यवस्थानं क्रियन्ते प्रथमं तु वै ॥

ये ही महर्षि प्रत्येक युग में सृष्टि के आरंभ होने पर वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था करते हैं तथा शास्त्रमर्यादित जीवनचर्या के पथप्रदर्शक बनते हैं । इसीलिये गृहस्थ धर्म को स्वीकार करके भी भगवान्‌ की भक्ति का उपदेश देते हैं भगवान्‌ में श्रद्धा-प्रेम रखना तथा शास्त्रचर्या को अपने जीवन में उतारकर लोकशिक्षण प्रदान करना इनका मुख्य उद्देश्य है ।

ब्रह्माजी के एक दिन (कल्प) में चौदह मनु होते हैं । प्रत्येक मनु के काल को मन्वन्तर कहते हैं । प्रत्येक मन्वन्तर में देवता, इन्द्र, सप्तर्षि तथा मनुपुत्र भिन्न-भिन्न होते हैं । एक मन्वन्तर बीत जाने पर मनु बदल जाते हैं तो उन्हीं के साथ सप्तर्षि, देवता, इन्द्र और मनुपुत्र भी बदल जाते हैं । पहले मनु स्वायम्भुव मनु हैं और इन्हीं के नाम से पहला मन्वन्तर स्वायम्भुव मन्वन्तर कहलाता है ।

इस स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षियों के नाम इस प्रकार हैं -
  1. मरीचि
  2. अत्रि
  3. अंगिरा
  4. पुलस्त्य
  5. पुलह
  6. क्रतु और
  7. वसिष्ठ
वर्त्तमान में सातवाँ वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है ।
इस मन्वन्तर के सप्तर्षियों के नाम इस प्रकार हैं -
  1. वसिष्ठ
  2. कश्यप
  3. अत्रि
  4. जमदग्नि
  5. गौतम
  6. विश्वामित्र और
  7. भरद्वाज।

सप्तर्षि सौरमण्डल में  सप्तर्षिमण्डल के नाम से स्थित हैं प्रातः काल में इन सप्तर्षियों का नाम कीर्तन करने से सप्तर्षि मंगल की प्राप्ति होती है तथा दिनचर्या ठीक से चलती है । भाद्रशुक्ल पंचमी ऋषिपंचमी कहलाती है ।

सप्तर्षियों के पूजन का वैदिक मन्त्र
सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे सप्त रक्षन्ति सदमप्रमादम्। । 
सप्तापः स्वपतो लोकमीयुस्तत्र जागृतो अस्वप्नजौ सत्रसदौ च  देवौ ॥

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