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जन्मपत्री पूर्वार्जित कर्मों को जानने का माध्यम है । पूर्वकृत कर्म से मनुष्य को कौन-सी व्याधि होगी? इसका ज्ञान ज्योतिष विद्या से ही प्राप्त होता है । भारतीय संस्कृति के आधार स्तम्भ चार वेदों में ऋग्वेद सबसे प्राचीन है । इसके अन्तर्गत ज्योतिष एवं चिकित्सा विज्ञान का वर्णन है । दोनों एक दूसरे के पूरक एवं एक-दूसरे पर निर्भर हैं । वस्तुतः आकाशीय पिण्डों का ज्योतिर्मय संगठन ही शरीर रूपी भौतिक संगठन का कारक है । चरक संहिता में कहा गया है कि पुरुषोऽयं लोकसंमितःअर्थात् यह पुरुष सृष्टि के समान है । यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे के द्वारा भी कहा गया है । आयुर्वेद में भाग्य एवं पुरुषार्थ (कर्म) दोनों का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है । भाग्य एवं पुरुषार्थ (कर्म) का योग हो तो निश्चित रूप से सुखपूर्वक दीर्घायु की प्राप्ति होती है । इसके विपरीत हीन संयोग दुःख एवं अल्प आयु का कारण होता है । जब भाग्य बलवान् होता है और उसके समान पुरुषार्थ (कर्म) नहीं किया जाता, तब पुरुषार्थ का कोई फल नहीं होता  है।

गर्भाधान के समय आकाशीय शक्तियाँ भ्रूण के गुण संगठन एवं जीन्स-संगठनपर पूर्ण प्रभाव डालती हैं । जन्म लग्न के द्वारा यह ज्ञात हो सकता है कि बच्चे में किन आधारभूत तत्त्वों की कमी रह गयी हैं ।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार –
  • सूर्य – अस्थि, जैव-विद्युत्, श्वसन-तन्त्र |
  • चन्द्रमा – रक्त, जल, अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ – (हार्मोन्स) ।
  • मंगल – यकृत्, रक्तकणिकाएँ, पाचन-तन्त्र ।
  • बृहस्पति – नाड़ीतन्त्र, स्मृति, बुद्धि ।
  • बुध – अंग-प्रत्यंग-स्थित तन्त्रिका-जाल।
  • शुक्र – वीर्य, रज, कफ, गुप्तांग ।
  • शनि – केन्द्रीय नाड़ीतन्त्र, मन ।
  • राहु एवं केतु – शरीर के अन्दर आकाश अपानवायु ।

ग्रहदोष के अनुसार विभिन्न वनौषधियाँ बाधा का निवारण तथा जल से स्नान करने से विभिन्न रत्न धारण करने से ग्रहॉ की बाधाएँ नष्ट होती हैं ।मन्त्र एवं औषधि प्रयोग से व्याधि का पूर्णतः परिहार या प्रभाव कम किया जा सकता है । सूर्य पित्तदोष, चन्द्रमा कफ एवं वातदोष, बुध त्रिदोष, बृहस्पति कफदोष, मंगल पित्तदोष एवं शनि वातदोष उत्पन्न करते है । शरीर में वात, पित्त, कफ की मात्रा का समन्वय रहने पर शरीर स्वस्थ बना रहता है । 

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