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क्या और कैसे, कुंडली निर्माण के बारे में

जिस प्रकार सर्प गोलाकार में कुण्डली बाँधे रहता है, वैसे ही कुण्डली भी लम्बी बनी होती है और गोलाकार लपेटी रहती है, इसलिये इसे कुण्डली कहते हैं। इसी का नाम जन्मपत्री भी है। मुख्य रूप से इसमें बारह कोष्ठक का एक चक्र बना रहता है और उसमें जातक के जन्मसमय की वैसी ही ग्रहस्थिति अंकित रहती है, जैसी उस समय आकाश मंडल में रहती है। यह समझना चाहिये कि जातक के जन्मसमय में आकाश में ग्रह नक्षत्रों की जो स्थिति रहती है, उसी की छाया जन्मपत्री है। राशियाँ 12 होती है और एक राशि का मान ३० अंश होता हैl

कुण्डली निर्माण

जन्म कुण्डली निर्माण के लिये जन्म-समय, जन्म स्थान, जन्मदिन, जन्म - सम्वत् तथा उस स्थान के पंचांग का ज्ञान होना आवश्यक है । जन्मपत्री के निर्माण द्वारा व्यक्ति की उत्पत्ति के समय ग्रह-नक्षत्रो की स्थिति पर से जीवन के सुख-दुःख का ज्ञान किया जाता है ।

कुण्डली निर्माण के चरण –

1. इष्टकाल - सूर्योदय से लेकर जन्मसमय तक का जो समय है। वह इष्टकाल कहलाता है।
2. भयात - भभोग का साधन

कुण्डली निर्माण

षड़वेदाङ्गों में चक्षु स्वरूप ज्योतिषशास्त्र आज लोकप्रियता के चरम पर है । भौतिकवाद एवं आधुनिकता की दौड़ मे अपने को बनाये रखने के लिए संघर्षरत मानव अपने भविष्य के प्रति कुछ अधिक चिन्तित है। भविष्य के प्रति बढ़ती असुरक्षा की भावना में उसे ज्योतिष की ओर उन्मुख किया है।

ज्योतिष शास्त्र की सम्बन्ध खगोल से रहा है। खगोलीय पिण्डों के साथ मानव के तादात्म्य सम्बन्ध का पक्षधर ज्योतिषशास्त्र मानव पर पड़ने वाले इन पिण्डो के सूक्ष्म व स्थूल प्रभाव का वर्णन करता है। ज्योतिषशास्त्र के आधारभूत ग्रह, नक्षत्र, राशि, योग आदि का स्वरूप एवं आकाश मण्डल में इनकी स्थिति का प्रतिपादन करते हुए तिथि एवं वार के स्वरूप का विवेचन भी दिया गया है।

जन्मपत्री निर्माण पद्धति के अन्तर्गत इष्ट साधन लग्न स्पष्ट, ग्रह स्पष्ट, भाव स्पष्ट , विंशोत्तरी महादशा, अन्तर्दशा साधन, प्रत्यन्तर दशा एवं सूक्ष्म प्रत्यन्तर दशा का साधन किया जाता है।
"तिथिर्वासिर नहात्रे योग: करणमेव च इति पञ्चामाख्यातं व्रतपर्व निदर्शकम।"
अर्थात तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण पञ्चाङ्ग के पांच अंग होते है। जन्मकुण्डली निर्माण के लिए सर्वप्रथम स्थानीय समय ज्ञात किया जाता है। स्थानीय समय के आधार पर इष्टकाल का निर्माण किया जाता है।

इष्टकाल के आधार पर लग्न स्पष्ट किया जाता है। किसी समय विशेष पर पूर्वी क्षितिज पर जो राशि उदीयमान होती है, वह उस समय विशेष पर उस स्थान विशेष का लग्न होगा | यहाँ समय व स्थान दोनो महत्वपूर्ण है।

किसी जन्म-पत्रिका के लग्न का निर्धारण करने के लिए -

1. जन्म समय

2. जन्म स्थान

3. जन्म दिनांक जानना आवश्यक होता है

ग्रह-स्पष्ट

सामान्यतया जन्म के लिए ग्रहों की लग्न व राशि चक्र में क्या स्थिति है यह जानने के लिए पंचांग मे उस दिन के ग्रहों की प्रात: कालीन स्थिति स्थापित कर दी जाती है, लेकिन वास्तव मे जन्म समय पर ग्रहों की क्या स्थिति है, यह जानने के लिए ग्रह स्पष्ट करना आवश्यक होता है।

विंशोत्तरी दशा व अन्तर्दशा साधन

ज्योतिष शास्त्र में फल कथन के लिए विंशोतरी, अष्टोत्तरी, योगिनी व चर दशायें मुख्य रूप से प्रयोग में ली जाती है। लेकिन इन पद्धतियों में विशोत्तरी दशा को विशेष महत्व दिया जाता है।

नवग्राणां दुशावर्ष प्रमाणम् रसा: आशा: शैला वसुविधूमिता भूपतिमिता, नवेला: शैलेला नगपरि मिता विंशतिमिताः ।। रवाविन्दावारे तमसि च गुरौ भानुतनये बुधे केतौ शुक्रे क्रमश: उदिता: पाकशरदः ।।

जन्म समय पर चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर ही विंशोत्तरी दशा की गणना की जाती है। ग्रहों का दशावर्ष प्रमाण क्रमशः सूर्य (६), चन्द्रमा (१०), मङ्गल (७), बुध (१७), गुरू (१६), शुक्र (२०), शनि (१९), राहु (१८), केतु (७) वर्ष नियत है।

जन्म कुण्डली के द्वारा जातक के जीवन में इस प्रकार प्रकाश पड़ता है, जिससे उसकी सम्पूर्ण जीवनी स्पष्ट हो जाती है।

यस्य नास्ति खलु जन्मपत्रिका, या शुभाशुभ फलदायिनी ।

अन्धकं भवति तस्य जीवनं दीपहीन इव मन्दिरं निशि ॥

अर्थात शुभाशुभ फल का ज्ञान कराने वाली जन्मपत्री जिस व्यक्ति की नही है, उसका जीवन रात्रि में प्रकाश हीन मन्दिर के समान केवल अन्धकारमय है।

अत: मानव जीवन में घटित होने वाली समस्त शुभ-अशुभ घटनाओं की जानकारी के लिए जन्मकुण्डली का होना अत्यावश्यक है।

जन्म कुण्डली में किस भाव से क्या विचार किया जाता है -

प्रथम भाव - लग्न को तनु भाव भी कहते है। इससे शरीर, वर्ण, चिन्ह, आयु, कद, सुख, दुख, शील, अवस्था, जाति, नीरोगता, शिर, पितामही (दादी) , मातामह (नाना) का विचार किया जाता है।

द्वितीय भाव - इसको धन भाव भी कहा जाता है, इससे स्वणादि धातु, द्रव्य खरीद बिक्री,रत्न कोष, धन संग्रह, कुटम्ब दाहिनी आंख, गला, मुख, भोजन, सत्य, मित्र, वस्त्र का विचार किया जाता है।

तृतीय भाव - जन्मकुण्डली मे तृतीय भाव को सहज भी कहा जाता है। इससे साहस, भाई बहिन, मार्ग, पैतृक कर्म की हानि, कार्यहानि, औषधि, सहायता, पड़ोसी आदि का विचार किया जाता है।

चतुर्थ भाव 'सुख' का है। इससे पैतृक सम्पत्ति, जमीन, मकान, ग्राम, बगीचा वृक्ष, बान्धव, माता, सुख, मित्र, वाहन, गड़ाधन आदि का विचार किया जाता है।

पंचम भाव को सुत कहते हैं। इससे पुत्र, गर्भ स्थिति, नीति, बुद्धि, विद्या, विवेक, पितृ स्वभाव, पुण्य का विचार किया जाता है।

षष्टम भाव रिपु का है। इसमें शत्रु, रोग, चिन्ता, व्यथा, मामा, चोर, व्यसन, विघ्न, शंका आदि का विचार किया जाता है।

सप्तम भाव जाया (पत्नी) अथवा पति का है। इससे स्त्री या पति, विवाह, कामदेव, वाद - विवाद, यात्रा, मृत्यु, क्रय विक्रय, पितामह (दादा) का विचार किया जाता है।

अष्टम भाव आयु का है। इस भाव से आयु, मृत्यु, मृत्यु का कारण, मरणदेश, गुदा एवं गुह्य,युद्ध, चोरी, रोग, अनादर, ऋण, कठिन कार्य आदि का विचार किया जाता है।

नवम भाव धर्म का है। इस भाव से भाग्य, भक्ति ,गुरु, पाप, पुण्य, सामाजिक यश, दान, धर्म, साला, देवर, यात्रा का विचार किया जाता है।

दशम भाव कर्म का है। इस भाव से कर्म (आजीविका),आज्ञा,कृषि, पिता, उच्चपद ,राजसंबंध, निद्रा, चरित्र, वंश, सन्यास, प्रवास ,वर्षा आदि का विचार किया जाता है।

एकादश भाव लाभ का है। इस स्थान से धन लाभ, जांघ, दाहिना पैर, संतानहीनता, कन्याप्राप्ति, पुत्र, भार्या, पुत्रनाश, विद्या प्राप्ति, ज्येष्ठ भ्राता आदि का विचार किया है।

द्वादश भाव व्यय भाव कहलाता हैl इससे धनव्यय, हानि, ऋण, दूरदेशाटन, दंड, दुर्गति आँख, पैर, पिता के भाई, विवाद, कृषिकार्य, पतन आदि का विचार किया जाता है।

ज्योतिष शास्त्र में फल कथन कि शाखायें -

1. पराशरमत ज्योतिष में फल कथन की यह सर्वमान्य तथा बहु प्रचलित पद्धति है महर्षि पराशर इस सिद्धांत के मुख्य प्रवर्तक हैl

2. जैमिनीमत - फलितज्योतिष के प्रवर्तक में जैमिनी भी थे। महर्षि जैमिनी ने भी फलादेश के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है।

3. केरलमत - इस पद्धति को वर्तमान भाषा में अंकज्योतिष कहा जाता है। इसमें जन्मदिन अथवा जन्मनाम के अक्षरों की संख्या का पिण्ड बनाकर फल कहने की विधि है।

4. भृगु संहिता - ज्योतिष में इस सिद्धान्त के प्रर्वतक महर्षि भृगु है। इसलिए इसे भृगु संहिता कहते है। इसमें कुल 1800 कुण्डलियाँ और उनका फल लिखा हुआ है।

5. प्रश्न शास्त्र - इस शास्त्र में भविष्य कथन के लिए जन्म दिन एवं जन्मसमय की आवश्यकता होती है।

गोचर पद्धति - ज्योतिष की इस विधा में ग्रह नक्षत्र की वर्तमान स्थिति के अनुसार फल कथन किया जाता है।

अष्टक वर्ग - इसमें केवल जन्मकालीन चन्द्रमा व वर्तमान ग्रहों की स्थिति ही नहीं देखी जाती अपितु जन्मकालीन ग्रहों की स्थिति से वर्तमान ग्रहों की स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है।

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