गणित, होरा एवं संहिता – इन तीन स्कन्धों से युक्त ज्योतिष शास्त्र वेद का नेत्र प्रधान अंग है । इस विद्या से भूत, भविष्य, वर्तमान, सभी वस्तुओं तथा त्रिलोक का प्रत्यक्षवत् ज्ञान हो जाता है । ज्योतिष ज्ञान विहीन लोक अन्य ज्ञानों से पूर्ण होने पर भी दृष्टि शून्य अन्धेके तुल्य होता है । इस महनीय ज्योतिष शास्त्र के प्राण तथा आत्मा और ज्योतिश्चक्र के प्रवर्तक भगवान् सूर्य ही हैं । वे स्वर्ग और पृथ्वी के नियामक होते हुए उनके मध्य बिन्दु में अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के केन्द्र में स्थित होकर ब्रह्माण्ड का नियमन और संचालन करते हैं । उनके ही द्वारा दिशाओं का निर्माण, कला, काष्ठा, पल, घटी, प्रहर से लेकर अब्द, युग, मन्वन्तर तथा कालपर्यन्त कालों का विभाजन, प्रकाश, ऊष्मा, चैतन्य, प्राणादि वायु, झंझावात, विद्युत्,
वृष्टि, अन्न तथा प्रजावर्ग को ओज एवं प्राण शक्ति का दान एवं नेत्रों को देखने की शक्ति प्राप्त होती है । भगवान् सूर्य ही देवता, तिर्यक्, मनुष्य, सरीसृप तथा लता वृक्षादि समस्त जीव समूहों के आत्मा और नेत्रेन्द्रिय के अधिष्ठाता हैं ।
देवतिर्यङ्मनुष्याणां सरीसृपसवीरुधाम् । सर्वजीवनिकायानां सूर्य आत्मा दृगीश्वरः ॥( श्रीमद्भा०)
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सूर्य समस्त ग्रह एवं नक्षत्र मण्डल के अधिष्ठाता तथा काल के नियन्ता हैं । ग्रहों में कक्षा चक्र के अनुसार सूर्य के ऊपर मंगल तथा फिर क्रमशः गुरु तथा शनि हैं और नीचे क्रमशः शुक्र, बुध तथा चन्द्रकक्षाएँ हैं । सूर्य, चन्द्र एवं गुरु के कारण पाँच प्रकार के संवत्सरों-वत्सर, परिवत्सर, अनुवत्सर, इडावत्सर तथा संवत्सर का निर्माण होता है।