प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों के पास आज की तरह न तो विकसित वेधशालाएँ थीं और न सूक्ष्म परिणाम देने वाले आधुनिकतम वैज्ञानिक उपकरण, फिर भी वे अपने अनुभव तथा अतीन्द्रिय ज्ञान के सहारे आकाशीय ग्रह-नक्षत्रों आदि का अध्ययन करके वर्षां पूर्व मौसम का पूर्वानुमान कर लेते थे । यद्यपि वैदिक संहिताओं, पुराणों, स्मृतियों में इस विज्ञान का उल्लेख मिलता है, फिर भी आचार्य वराहमिहिर का इसमें विशेष योगदान रहा है । उन्होंने अपने ग्रन्थ बृहत्संहिता में इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला है । संहिता ग्रन्थों में तो ऐसे मन्त्रों का भी विधान है, जिनके द्वारा यथेच्छ रूप से वर्षा के आयोजन और निवारण को नियन्त्रित किया जा सकता है ।
ऋतुचक्र का प्रवर्तक सूर्य होता है । सूर्य जब आर्द्रा नक्षत्र में प्रवेश करता है, तभी से वर्षा ऋतु का प्रारम्भ माना जाता है । भारतीय पंचांगकार प्रतिवर्ष आर्द्राप्रवेश-कुण्डली बनाकर भावी वर्षा की भविष्यवाणी करते हैं । आर्द्रा से नौ नक्षत्र पर्यन्त वर्षा का समय माना जाता है ।
गर्ग, पराशर आदि ऋषियों के समय तो यह विज्ञान गुरु-शिष्य परम्परा में रहा । कालान्तर में अनेक ज्योतिर्विदों द्वारा इसे सर्वसुलभ कराया गया ।