विष्णु पुराण के अनुसार एक समय देवताओं और दानवों में लंबे समय तक युद्ध चलता रहा। भगवान विष्णु ने दोनों पक्षों से समुद्र मंथन करने के लिए के लिए युद्ध रोकने का आग्रह किया। असुरराज बलि ने देवराज इन्द्र से समझौता कर लिया और समुद्र मंथन के लिये तैयार हो गये। समुद्र मंथन से जो कुछ निकलता, उसे देवों और असुरों में वितरित किया जाना था। मन्दराचल पर्वत को मथनी तथा वासुकी नाग को नेती बनाया गया।
इंद्र के नेतृत्व में देवतागण वासुकि की पूंछ और बलि के नेतृत्व में असुर गण मुंह पकडकर मंथन करने लगे। समुद्र मंथन में सबसे पहले घोर विष हलाहल निकला। भगवान शिव ने स्वेच्छा से हलाहल को पी लिया। अंत में अमृत का प्याला लिए धन्वंतरि (ओषधि के जन्मदाता) का आगमन हुआ। असुर अमृत का कलश लेकर भाग गए। तब भगवान विष्णु ने देवताओं के हित में मोहिनी का रूप धारण किया। असुर उसकी सुंदरता से मोहित हो गए और उसे ही अमृत बांटने का काम सौंप दिया। मोहिनी देवताओं में अमृत बाटने लगी। भगवान की इस चाल को स्वरभानु नामक दानव समझ गया। वह देवता का रूप बना कर देवताओं में जाकर बैठ गया और प्राप्त अमृत को मुख में डाल लिया। जब अमृत उसके कण्ठ में पहुँच गया तब सूर्य और चंद्रमा ने उसे पहचान लिया। दोनों ने भगवान विष्णु को यह बात बताई। भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर गर्दन से अलग कर दिया। सिर वाला भाग राहु और धड़ वाला भाग केतु के नाम से जाना गया। अमृत के प्रभाव से वह धड़-विहीन होने के बावजूद जीवित रहा। तब से उसने सूर्य और चंद्रमा को क्षमा नहीं किया है, और अक्सर उन्हें ग्रस लेता है। इसी कारण सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण लगते हैं।
राहु को आठवें ग्रह के रूप में और केतु को नौवें ग्रह के रूप में शामिल कर लिया गया।