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जन्म के साथ ही मानव को स्वरोदय-ज्ञान मिला है। यह  विशुद्ध वैज्ञानिक आध्यात्मिक ज्ञान-दर्शन है, प्राण ऊर्जा है, विवेक शक्ति है। स्वर-साधना  अनुभव से हमारे ऋषि-मुनियों ने भूत, भविष्य और वर्तमान को जाना है।

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में अंक ज्योतिष, स्वप्न ज्योतिष, स्वरोदय- ज्योतिष, शकुन-ज्योतिष, सामुद्रिक हस्तज्योतिष, शरीरसर्वांगलक्षणज्योतिष हैं। इन सब में तत्काल प्रभाव और परिणाम देने वाला स्वरोदय विज्ञान है।

 मानव-शरीर पंच तत्त्वों का बना हुआ ब्रह्माण्ड का ही एक छोटा स्वरूप है।  मानव  नासिका में दो छिद्र है दोनों में केवल एक छिद से ही वायु का प्रवेश और बाहर निकलना होता रहता है। दूसरा छिद्र बन्द रहता है। जब दूसरे छिद्र से वायु का प्रवेश और बाहर निकलना प्रारम्भ होता है तो पहला छिद्र स्वतः ही स्वाभाविक रूपसे बन्द हो जाता है अर्थात् एक चलित रहता है तो दूसरा बन्द हो जाता है। इस प्रकार वायु वेग के संचार की क्रिया-श्वास-प्रश्वास को ही स्वर कहते हैं। स्वर ही साँस है। साँस ही जीवन का प्राण है। स्वर का दिन-रात २४ घंटे बना रहना ही जीवन है। स्वर का बन्द होना मृत्यु का प्रतीक है।

स्वर का उदय सूर्योदय के समय के साथ प्रारम्भ होता है।  स्वर प्रतिदिन प्रत्येक  घंटे के बाद दायाँ से बायाँ और बायाँ से दायाँ में बदलते हैं और स्वरोदय के साथ पाँच तत्त्व – पृथ्वी (२० मिनट), जल (१६ मिनट),  अग्नि (१२ मिनट), वायु (८ मिनट), आकाश (४  मिनट) भी एक विशेष समय-क्रम से उदय होकर क्रिया करते रहते है।

एक स्वस्थ व्यक्ति की श्वास-प्रश्वास-क्रिया दिन-रात अर्थात् २४  घंटे में २१६०० बार होती है। नासिका के दाहिने छिद्र को दाहिना स्वर या सूर्यस्वर या पिंगला नाड़ी-स्वर कहते  हैं और बायें छिद्र को बायाँ स्वर या चन्द्रस्वर या इडा  नाड़ी-स्वर कहते हैं। इन स्वरों का आत्मानुभव व्यक्ति स्वयं मन से ही करता है कि कौन-सा स्वर चलित है,  कौन-सा स्वर अचलित है। यही स्वरविज्ञान ज्योतिष है।

 संचार कभी-कभी दोनों छिद्रों से वायु-प्रवाह एक साथ निकलना प्रारम्भ हो जाता है, जिसे सुषुम्ना नाड़ी-स्वर  कहते हैं। इसे उभय-स्वर भी कहते हैं। शरीर की रीढ़ की  हड्डी में ऊपर मस्तिष्क से लगाकर मूलाधारचक्र (गुदद्वार) – तक सुषुम्ना नाड़ी रहती है। इस नाड़ी के बायीं ओर चन्द्रस्वर नाड़ी और दायीं ओर सूर्यस्वर नाड़ी रहती है।

  हमारे शरीर में ७२ हजार नाड़ियों (धमनियों, शिराओं, कोशिकाओं) का जाल फैला हुआ होता है, जिसका नियन्त्रण केन्द्र  मस्तिष्क है। मस्तिष्क से उत्पन्न मन के शुभ-अशुभ शीतल विचारों का प्रभाव नाड़ीतन्त्र पर पड़ता है, जिससे स्वरों की संचारगति धीमी और तेज हो जाती है। इसका प्रभाव मूलाधारचक्र, स्वाधिष्ठानचक्र, मणिपूरचक्र, अनाहतचक्र,  विशुद्धचक्र, आज्ञाचक्र और सहस्रारचक्र पर भी पड़ता है। इससे शारीरिक और मानसिक परिस्थितियों एवं घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता है। यही स्वरोदय ज्योतिष है।

स्वरों  में कार्य-

 (१) – चन्द्रस्वर में सभी प्रकार के स्थिर, सौम्य और शुभ कार्य करने चाहिये। यह स्वर साक्षात् देवीस्वरूप है। यह स्वर शीतल प्रकृति का होने से गर्मी और पित्त जनित रोगों से रक्षा करता है।

(२) सूर्य स्वर में सभी प्रकार के चलित, कठिन कार्य करने से सफलता मिलती है। यह स्वर साक्षात् शिव स्वरूप है । उष्ण प्रकृति का होने से सर्दी, कफजनित रोगों से रक्षा करता है। इस स्वर में भोजन करना, औषधि बनाना, विद्या और संगीत का अभ्यास आदि कार्य सफल होते हैं।

(३) सुषुम्ना स्वर साक्षात् कालस्वरूप है। इसमें ध्यान, धारणा, समाधि, प्रभु-स्मरण और कीर्तन श्रेयस्कर है।

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