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जिस भूमि पर मनुष्यादि प्राणी निवास करते हैं, उसे वास्तु कहा जाता है। इस के गृह, देव प्रासाद, ग्राम, नगर,  आदि अनेक भेद हैं।  वास्तु के आविर्भाव के विषय में मत्स्यपुराण में आया है कि अन्धकासुर के वध के समय भगवान् शंकर के ललाट से जो स्वेदबिन्दु गिरे उनसे एक भयंकर आकृति वाला पुरुष प्रकट हुआ। जब वह त्रिलोकी का भक्षण करने के लिये उद्यत हुआ, तब शंकर आदि देवताओं ने उसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तु देवता (वास्तुपुरुष)-के रूप में प्रतिष्ठित किया और उसके शरीर में सभी देवताओं ने वास किया। इसीलिये वह वास्तु देवता कहलाया। देवताओं ने उसे पूजित होने का वर भी प्रदान किया। वास्तु देवता की पूजा के लिये वास्तु प्रतिमा तथा वास्तु चक्र बनाया जाता है। वास्तु चक्र प्राय: 49 से लेकर एक सहस्र पदात्मक होता है। भिन्न-भिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न वास्तु चक्रों का निर्माण कर उनमें देवताओं का आवाहन, स्थापन एवं पूजन किया जाता है। चौंसठ पदात्मक तथा इक्यासी पदात्मक वास्तु चक्र के पूजन की परम्परा विशेष रूप से प्रचलित है। इस सभी वास्तु चक्र के भेदों में प्रायः इन्द्रादि दस दिक्पालोंके साथ शिखी आदि पैंतालीस देवताओं का पूजन किया जाता है तथा उन्हें पायसान्न बलि प्रदान की जाती है। वास्तुकलश में वास्तुदेवता (वास्तोष्पति) की पूजा कर उनसे सर्वविधि शान्ति एवं कल्याण की प्रार्थना की जाती है।

वास्तोष्पते प्रति जानीह्यस्मान्त्स्वावेशो अनमीवो भवानः ।	
 यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ॥

 हे वास्तुदेव ! हम आपके सच्चे उपासक हैं, इसपर आप पूर्ण विश्वास करें और हमारी स्तुति-प्रार्थनाओं को सुनकर हम सभी उपासकोंको व्याधिमुक्त कर दें तथा जो हम अपने धन -ऐश्वर्य की कामना करते हैं, आप उसे भी परिपूर्ण कर दें, साथ ही इस वास्तुक्षेत्र या गृह में निवास करने वाले हमारे स्त्री-पुत्रादि-परिवार-परिजनों के लिये कल्याणकारक हों एवं हमारे अधीनस्थ गौ, अश्वादि सभी चतुष्पद प्राणियों का भी कल्याण करें। 
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