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क्या और कैसे, पाठ के बारे में

वैदिकमन्त्रों, पुराणों, काव्यग्रंथो व स्तोत्रों से सम्बन्धित श्लोकों का पाठ करने की शास्त्रीय परम्परा है। मन्त्र व स्तोत्र संस्कृत भाषा के विशुद्ध व्याकरण के नियमों से बंधे होते हैं, इसलिए इनके उच्चारण, स्मरण, मनन, पठन इत्यादि में विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। उच्चारण में त्रुटि घातक व अर्थ का अनर्थ कर देने वाली होती है। इसके साथ ही अशुद्ध उच्चारण लक्ष्य की प्राप्ति करवाने में समर्थ नहीं हो पाता है। पौराणिक कथाओं व संस्कृत व्याकरण के ग्रथों में अशुद्ध उच्चारण का दुष्प्रभाव कहा गया है।

पतञ्तलि मुनि ने महाभाष्य ग्रंथ में कहा है कि - अशुद्ध उच्चारण करने वाला "वाग्वज्र" कहलाता है, अर्थात अशुद्ध उच्चारण व पाठ शस्त्र की तरह घातक बनकर यजमान व स्वयं पाठक का भी नाश करता है।

पतंजलि कहते हैं कि →

“स वाग्व्रजो यजमानं हिनस्ति ।
यथेन्द्रशत्रुस्‍ र्व रतोऽपराधात् ​​​ ॥”

इस प्रकार अशुद्ध पाठ जन्य दोषों से बचने के लिए मन्त्रों व श्लोकों से सम्बन्धित वर्णो व स्वरों का सटीक ज्ञान करके ही पाठ करना श्रेयस्कर होता है।

शुद्ध व नियमपूर्वक पाठ करने के लिय पाठक के गुण व दोषों को जानना आवश्यक है। उत्तम पाठक वह हैं जो मधुर वाणी में अक्षरों को अलग-अलग करके पढता हो । इसके साथ ही मन्त्र या श्लोक में आये हुए एक- एक पद (शब्द) को अलग-अलग करके पढ़ना, सही स्वर में पढना (न ज्यादा तेज आवाज और न ही धीमी आवाज हो), आराम से पढ़ना, व नियंत्रित लय (न ही जल्दी-जल्दी न ही धीरे-धीरे) में पढ़ना उत्तम पाठक के लक्षण मानें गये है।

पाणिनीय शिक्षा में कहा है:

माधुर्यम् अक्षरव्यक्ति: पदच्छेदस्तु सुस्वर: ।
धैर्यं लय समर्थश्च षडेते पाठकागुणा: ||

पाठ को गाकर पढ़ने वाला, पाठ करते समय सिर को हिलाने वाला, जैसा लिखा है वैसा ही पढ देने वाला, जल्दबाजी दिखाने वाला, अर्थ को बिना जाने ही पाठ करने वाला व बिल्कुल दबे गले से पाठ करने वाला अधम पाठक माना जाता है। अर्थात् ये सभी गुण अच्छे पाठक के नहीं हो सकते।

पाणिनि के मतानुसार अधम पाठक के ६ लक्षण है:

गीती शीघ्री शिर: कम्पी तथा लिखितपाठक:।
अनर्थज्ञोल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः॥

पाठ का प्रभाव →

भाषा विज्ञान व ध्वनि विज्ञान के अनुसार शब्दों का अपना प्रभाव होता हैl संस्कृत व्याकरण व वाक्यपदीप ग्रंथों में शब्द को ब्रह्म मानते हुए शब्द की अनश्वरता सिद्ध की गई है, अर्थात शब्द नष्ट नहीं होते, अपितु मुख से निकलने के बाद अनन्त आकाश मे शब्दों का प्रभाव प्रतिष्ठित हो जाता हैं। बुरे शब्दों से नकारात्मक वातावरण का निर्माण होता है और साधु (अच्छे एवं संस्कृतमय शब्द) शब्दों का सकारात्मक प्रभाव होता हैं । स्तोत्र में आये हुए शब्दों का सकारात्मक प्रभाव अंतरिक्ष मे विचरण करते हुए पाठक की कार्य-सिद्धि के पक्ष में वातावरण बनाता हैं । इसलिए हर प्रकार के स्तोत्र में भय, शोक, संताप व मनस्ताप के नाश के लिए प्रार्थना अवश्य की गई हैं।

यथा:

॥ भयशोकमनस्तापाः नश्यन्तु मम सर्वदा ॥

इस प्रकार जब पाठक बार-बार यह पार्थना करता है कि मेरे भय-शोक व मन के संताप का नाश हो तब ध्वनि विज्ञान के नियमानुसार वैसा ही होना निश्चित हो जाता है, अर्थात पाठक के भय-शोक आदि का नाश होकर कार्य की सिद्धि होना सुनिश्चित हो जाता है।

निष्कर्ष

इस प्रकार पाठक को चाहिए कि वह पाठ के प्रभाव को समझते हुए उत्तम पाठक व अधम पाठक के गुणों का ठीक प्रकार से अवलोकन कर स्वर, वर्ण, मात्रा आदि का ध्यान रखते हुए ही मंत्रो व विभिन्न स्तोत्रों का पाठ करें। स्तोत्रों का पाठ भी सकारात्मक ऊर्जा के उत्पादन में उतना ही समर्थ है जितना वैदिक मंत्रों का जप होता है, इसीलिए यथा इप्सित् मनोकामना व कार्य के अनुसार संबंधित देवता का स्तोत्र पाठ किया जाना चाहिए।

 

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